December 12, 2025
मगर सविता उत्तम

स्त्री-पुरुष संबंधों का बदलता स्वरूप

मगर सविता उत्तम

शोधार्थी, हिंदी विभाग, भाषा साहित्य भवन,                                                           

गुजरात विश्वविद्यालय, अहमदाबाद

ईमेल: savitagawade4@gmail.com

चलभाष: +91 8980766407

मार्गदर्शक: डॉ. जशाभाई पटेल

Paper Abstract- यह शोधपत्रस्त्री-पुरुष संबंधों में नैतिक मूल्यों और व्यक्तिगत स्वतंत्रता के बीच उत्पन्न होने वाले द्वंद्व का विश्लेषण प्रस्तुत करता है। मानव समाज की मूल इकाई होने के कारण इन संबंधों पर सामाजिक परंपरा, नैतिक मान्यता और आधुनिक विचार आदि का गहरा असर पड़ता है। पारंपरिक समाज में नैतिकता का निर्धारण मुख्यत: पुरुष प्रधान मानदंडों पर आधारित था। आधुनिक युग में शिक्षा, आर्थिक स्वातंत्र्य और सामाजिक जागरूकता के प्रभाव से व्यक्तिगत स्वतंत्रता की अवधारणा अधिक विस्तृत हुई। स्त्री और पुरुष दोनों को समान अधिकार प्राप्त हुए जिसके परिणाम स्वरुप उनके आपस के संबंधों में तनाव, मतभेद और असंतुलन की स्थिति बढ़ने लगी। वर्तमान में स्वतंत्रता नैतिकता को चुनौती दे रही है और यही द्वंद्व की स्थिति का कारण बन रहा है।

Paper Keywords- स्त्री-पुरुष, नैतिक मूल्य, लैंगिक समानता, परंपरा, आधुनिकता, परिवर्तन

पेपर का शीर्षक- स्त्री-पुरुष संबंधों में नैतिक मूल्य और स्वतंत्रता का द्वंद्व

      मानव समाज की संरचना का मूल आधार स्त्री-पुरुष संबंध है। जब से मानव सभ्यता का विकास हुआ है, तब से ही स्त्री-पुरुष संबंधों में प्रेम, सामंजस्य, विवाद, संघर्ष, कर्तव्य, अधिकार और परस्पर निर्भरता और सामाजिक नैतिक मान्यताओं का प्रभाव देखा गया है। समय के साथ-साथ नैतिक मूल्यों में परिवर्तन आने लगा, साथ ही स्वतंत्रता के मायने भी बदलने लगे। आज पारम्परिक मूल्य और आधुनिक स्वतंत्रता में लगातार टकराव हो रहा है। वैश्वीकरण, शिक्षा, तकनीकी, सोशल मीडिया, आर्थिक स्वतंत्रता और बदलते सामाजिक ढाँचे ने इस संबंधों को नए आयाम दिए हैं।  

नैतिक मूल्यों की अवधारणा:

    नैतिक मूल्य वह मान्यताएँ हैं, जो समाज में उचित-अनुचित, सही-गलत, शिष्ट-अशिष्ट, स्वीकार्य-अस्वीकार्य व्यवहार का निर्धारण करती हैं। स्त्री-पुरुष संबंध में विश्वास और निष्ठा नैतिकता की आधारशिला है। “डॉ. आंबेडकर ने स्वयं अपने चरित्र तथा आचरण को उत्कृष्ट बनाने के लिए वैज्ञानिक तरीका व सोच का इस्तेमाल किया। उनका व्यवहार संतुलित एवं निश्चयवादी था। वैज्ञानिक विश्लेषण के माध्यम से डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर ने मानव प्राणियों की शारीरिक, मानसिक तथा बौद्धिक आवश्यकताओं की तृप्ति के लिए सामाजिक उत्तरदायित्व का निर्वहन करने के लिए बोध कराया है।”1 नैतिकता का महत्त्वपूर्ण पहलू है आत्मनियंत्रण तथा  अनुशासन। नैतिक मूल्य संबंधों में दायित्व का निर्वाह करने की अपेक्षा से जुड़ते है। सम्मान केवल सामाजिक शिष्टाचार नहीं, बल्कि नैतिक प्रतिबद्धता है। रिश्तों में पारदर्शिता और ईमानदारी से संवाद होना इसकी महत्वपूर्ण आवश्यकता है। इसमें दूसरे की भावनाओं और कठिनाइयों के प्रति सन्वेदनशील रहने की अपेक्षा होती है।

स्वतंत्रता की अवधारणा:

      व्यक्तिगतस्वतंत्रता मानव सभ्यता की प्रगति का आधार है। यह व्यक्ति को अभिव्यक्ति और अपनी जीवन दिशा निर्धारण करने का अधिकार प्रदान करती है। आधुनिक युग में स्वतंत्रता केवल राजनीतिक और सामाजिक स्तर पर सीमित नहीं है। आज व्यक्तिगत स्वतंत्रता भी बहुत महत्वपूर्ण मानी जाती है। भारतीय संविधान में भी इसका उल्लेख मिलता है। हर एक व्यक्ति को अपने विचार, भावनाएँ, निर्णय और जीवनशैली चुनने की स्वतंत्रता है, परन्तु स्वतंत्रता तभी सार्थक है जब यह जिम्मेदारी, नैतिकता और दूसरों के अधिकारों के साथ जुडी हो।

नैतिक मूल्य और स्वतंत्रता का द्वंद्व: पारम्परिक समाज व्यवस्था में स्त्री-पुरुष संबंध हमेशा नैतिकता की कसौटी पर परखे जाते हैं। आदिकाल से ही नैतिकता अक्सर पुरुष प्रधान व्यवस्था पर आधारित रही है। पुरुष निर्णय कर्ता और स्त्री नैतिक मानकों का वाहक के रूप में माना जाता रहा है। समय के साथ स्त्रियाँ अपने अधिकार और आत्मसम्मान के प्रति जागरुक हो रही है। अब वह अपने विचार खुलकर अभिव्यक्त करती है,परन्तु समाज की मानसिकता अभी पूर्ण रूप से बदली नहीं है। यह ‘बोलने वाली औरत’कहानी के माध्यम से देखा जा सकता है। इस कहानी में नायिका दीपशिखा की हाजिर जवाबी के कारण परिवार में हमेशा लड़ाई, झगड़े, द्वंद्व, रिश्तों में कड़वाहट उत्पन्न होती है। पति कपिल और दीपशिखा कॉलेज में साथ ही पढ़ते थे। दोनों का प्रेम विवाह हुआ था। कपिल को दीपशिखा की हाजिरजवाबी से पहले से ही चिढ़ थी। वह दीपशिखा को बहुत समझाने का प्रयास करता है। एक दूसरे के व्यवहार के कारण समय के साथ-साथ उनके मन और मस्तिष्क में दूरी आने लगती है। दीपशिखा परेशान होकर सोचती है- “एक इंसान को प्रेमी की तरह जानना और पति की तरह पाना कितना अलग था। जिसे उसने निराला समझा वही कितना औसत निकला। वह नहीं चाहता जीवन के ढर्रे में कोई नयापन या प्रयोग। उसे एक परंपरा चाहिए जी हुज़ूरी की। उसे एक गांधारी चाहिए जो जानबूझकर न सिर्फ अँधी बनी रहे, बल्कि गूंगी और बहरी भी।”2  इस कहानी में आपसी मतभेद और सामंजस्य के कमी के कारण स्त्री और पुरुष दोनों को भी मानसिक यातनाओं से गुजरना पड़ता है।

      पुराने समय में नैतिक मूल्य और व्यक्तिगत स्वतंत्रता में अधिक द्वंद्व देखने को नहीं मिलता था। पुरुष प्रधान संस्कृति के कारण पुरुषों को अधिक स्वतंत्रता मिलती थी वही स्त्रियों पर अत्यधिक कठोर नैतिक अनुशासन का पालन करना पड़ता था। पुरुष नैतिकता से परे कोई भी कार्य करें समाज उसे मूक सहमति प्रदान करता था। पर अनैतिक कार्यों से सामाजिक और मानसिक स्तर पर केवल और केवल उलझने ही बढ़ती हैं। इसका उदाहरण राजेन्द्र यादव की कहानी में देखा जा सकता है। वीरेश्वर कहानी का नायक अपने अकेलेपन से छुटकारा पाने के लिए अपनी पत्नी सुधा के होते हुए भी नीता से संबंध रखता है। अकेलापन तो खैर उसका दूर हो जाता है, परन्तु अनेक नई उलझने उसके सामने मुँह फाड़े खड़ी हो जाती है। वह कुलवंत से कहता है- “कभी-कभी मैं सोचता हूँ कि इस अकेलेपन से लड़ने के लिए आदमी कितने उलझने खुद अपने चारों तरफ बना लेता है।”3

    धार्मिक मान्यताओं और संस्कारों के नाम पर स्त्रियों को और अधिक संकुचित जीवन जीने पर मजबूर किया जाता रहा। ‘अभिमन्यु की आत्महत्या’ में कैलाश, मीना को चाहता है। विवाहोपरांत भी कैलाश उस संबंध को बनाए रखता है। सुभद्रा के पूछने पर वह यह कह कर अपना पीछा छुड़ा लेता है कि- “अब मेरे बस का नहीं है कि अपने बचपन के दिनों से चले आते पंद्रह-बीस साल के संपर्क को तोड़ लूँ। मीना मेरे व्यक्तित्व और जीवन का एक भाग बन गयी है। पिता का दिया हुआ फर्ज तुम हो और मीना मेरा अपना फर्ज है। मुझे कहीं तो जिंदा रहने दो।”4 यहाँपत्नी पूर्ण रूप से पति के ऊपर निर्भर है, इसलिए यह जानने के बावजूद भी कि उसके पति का किसी अन्य स्त्री के साथ संबंध है, वह कुछ नहीं कर पाती है।

    आधुनिक काल में इन स्थितियों में धीरे-धीरे परिवर्तन आने लगा है। शिक्षा, पुनर्जागरण, समाज सुधार आंदलनों के कारण नैतिकता की परिभाषा में बदलाव दिखाई देने लगा है। स्त्री के अस्तित्व, शिक्षा और समानता के बारे में विचार किया जाने लगा है। बीसवीं सदी के आते-आते स्त्री आन्दोलन, शिक्षा और औद्योगीकरण के परिणाम स्वरूप समाज में और स्त्रियों की स्थितियों में आमूलाग्र बदलाव देखा जा सकता है। ‘एक इंच मुस्कान’ की अमला पति द्वारा तिरस्कृत किए जाने पर उस आघात को सहज भाव से सहन नहीं कर पाती। जिसके कारण उसके स्वभाव में परिवर्तन आता जाता हैं। उसमें कुंठा, अहम और प्रतिशोध की भावना इतनी बढ़ जाती है, कि वह अपने जीवन में आने वाले प्रत्येक पुरुष को अपनी बुद्धि चातुर्य, रूपजाल में उलझाकर उसके भावनाओं से खिलवाड़ करती है और जैसे ही उसे लगने लगता है, कि वह व्यक्ति पूर्णतः उसके रूपजाल में फँस गया है, तो वह बड़ी निर्ममता से उसकी भावनाओं का तिरस्कार कर, अतृप्ति की पीड़ा देने में संतोष अनुभव करती है। प्रतिशोध की अग्नि में निरंतर जलने के कारण ही वह वैवाहिक परंपरा का विद्रोह करती है। जीवन में किसी पुरुष का प्यार और विश्वास उसे नहीं मिल सका इसलिए उसे अपना जीवन निरर्थक तथा शून्य लगने लगता है। वह सोचती हैं, कि “…वह पत्नी भी बनी, प्रेयसी भी, मित्र भी, पर वह किसी के जीवन को सँवार न सकी, न कोई उसके जीवन को सँवार सका और सारे संबंध असफल प्रयोग की तरह मन पर असह्य बोझ-सा छोड़कर टूटते चले गए।”5

     आज का समाज व्यक्ति की स्वतंत्रता को सर्वोच्च महत्त्व देने लगा है। स्त्रियों ने आर्थिक, सामाजिक और मनोवैज्ञानिक क्षेत्र में स्वतंत्र पहचान बनाई है। स्त्री और पुरुष समान रूप से निर्णय में भागीदार बनने लगे हैं। स्वतंत्रता के कारण स्त्रियाँ अन्याय के विरुद्ध आवाज उठाने लगी हैं। परंपरा से अधिक प्रेम, समझ और मित्रता पर आधारित संबंध विकसित हो रहे हैं।

      आधुनिकता और पाश्चात्य संस्कृति के कारण भारतीय संस्कृति पर अनेक सकारात्मक और नकारात्मक परिवर्तन दिखाई पड़ते हैं। पहले जहाँ नैतिकता का आधार सामाजिक परंपराएँ हुआ करती थी, वह आज व्यक्ति केन्द्रित आधुनिकता का मानक बन गई है। आधुनिक भारतीय समाज में पति के साथ-साथ पत्नी के भी विवाहेत्तर संबंध चर्चा में है। यादव कृत ‘एक खुली हुई साँझ’ में मधु अपने पति से अपने मित्र का परिचय कराते हुए कहती है… “ये मेरे हस्बैंड हैं और आप… मेरे मित्र”6

     स्त्री आज आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर हो गई है। वह अपने अधिकारों के प्रति सजग हो गई है, इसलिए परिवार तथा समाज में कही भी उसके सम्मान को ठेस पहुँचाई जाती है, तब वह चुप नहीं बैठती। एक ओर स्वतंत्रता समाज द्वरा बनाई सीमाओं को तोड़ने का प्रयास करती है, वही दूसरी ओर नैतिक मूल्य सामाजिक स्वीकृति खोजते दिखाई देते हैं। साहित्य का यह समकालीन बोध आधुनिक संवेदना के तात्विक संबंधों की संपत्ति है। आधुनिकता प्रक्रिया और गति है, इस पर डॉ. धर्मवीर भारती कहते हैं कि “आधुनिकता बोध संकट बोध है।”7

      आधुनिक परिवर्तन सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक कारणों से होता है। इस परिवर्तन के कारण जीवन दर्शन, व्यक्ति का दृष्टिकोण तथा आचार-विचारों में भी बहुत अधिक बदलाव दिखाई देता है। इस आधुनिकता और व्यक्ति स्वतंत्रता के कारण संयुक्त परिवार टूटकर एकल परिवार में बदलने लगे हैं। विवाह संबंधों में दरार आने लगी है, लोगों के बीच मतभेद बढ़ने लगे हैं। कुछ विद्वान इसे पाश्चात्य संस्कृतिका प्रभाव मानते है। इस संदर्भ में प्रसाद जी कहते है, “व्यक्तिगत चेतना के कारण सम्मिलित कुटुम्ब का जीवन दुखदायी हो रहा है।”8 स्त्री-पुरुष संबंधों में नैतिक मूल्य और स्वतंत्रता का द्वंद्व आधुनिक युग की सबसे बड़ी चुनौती है। जहाँ नैतिक मूल्य संबंध और समाज को स्थायित्व और सुरक्षा प्रदान करता है, वही स्वतंत्रता संबंध और समाज को आत्मविश्वास और संपूर्णता प्रदान करता है। इसमें टकराव तब निर्माण होता है जब दोनों किसी न किसी रूप में एक दूसरे के आड़े आते है।

निष्कर्ष: नैतिकता और व्यक्ति स्वातन्त्र्य दोनों मानव जीवन के दो महत्वपूर्ण संबंध हैं। स्त्री-पुरुष संबंधों में नैतिक मूल्य और स्वतंत्रता का द्वंद्व आधुनिक युग की सबसे बड़ी चुनौती है। जहाँ नैतिक मूल्य संबंध और समाज को स्थायित्व और सुरक्षा प्रदान करता है, वही स्वतंत्रता संबंध और समाज को आत्मविश्वास और संपूर्णता प्रदान करता है। इसमें द्वंद्व की स्थिति तब उत्त्पन्न होती है, जब नैतिकता के नाम पर स्वतंत्रता को दबाया जाता है, या स्वतंत्रता के नाम पर नैतिकता को दाँव पर लगाया जाता है। मनुष्य जाती का विकास करना है, तो इन दोनों में सामंजस्य लाना अति आवश्यक है। आज यह आवश्यक है कि परिवर्तन और आधुनिक युग में एक ऐसे समाज का निर्माण किया जाए, जहाँ नैतिकता व्यक्ति की स्वतंत्रता का सम्मान करें और स्वतंत्रता संबंधों की जिम्मेदारी समझें। मनुष्य जीवन में परिवर्तन ही प्रकृति का नियम माना जाता है, परन्तु कुछ तत्त्व निरंतर स्थिर रहते हैं जैसे- स्त्री-पुरुष संबंध, प्रेम, सम्मान और विशवास। नैतिक मूल्य और स्वतंत्रता तभी अर्थपूर्ण हैं, जब वह मानवता और संबंधों को समृद्धि और मजबूती प्रदान करें। जहाँ स्त्री और पुरुष दोनों व्यक्तिगत रूप से स्वतंत्र हों, परन्तु एक दूसरे के प्रति उतने ही सजग, सन्वेदनशील और जिम्मेदार भी रहें। एक ऐसे समाज का निर्माण हो जहाँ परम्परा व्यक्ति विरोधी न हो और आधुनिकता संबंध विरोधी न हो।  

सन्दर्भ:

  1. सांस्कृतिक क्रांति और डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर, डॉ. बी आर बुद्धिप्रिय, आंबेडकर मिशन प्रकाशन पटना, प्रथम सं. 2014, पृ. 6
  2. बोलने वाली औरत, ममता कालिया, पृ. 130
  3. राजेंद्र यादव, टूटना और अन्य कहानियाँ, पृ. 43.
  4. राजेंद्र यादव, यहाँ तक पडाव-1, पृ. 326.
  5. एक इंच मुस्कान, राजेंद्र यादव और मन्नू भंडारी, पृ. 138
  6. राजेंद्र यादव, यहाँ तक पड़ाव-2, पृ. 221.
  7. डॉ. धर्मवीर भारती, आधुनिक साहित्य बोध पृ.7
  8. तितली, जयशंकर प्रसाद, भा. भ. इलाहबाद, संस्करण 2023, पृ. 109

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