
Baidehi Priyanka Yadav
लेखिका के बारे में
प्रियंका यादव, जिन्हें साहित्यिक जगत में “बैदेही” के नाम से जाना जाता है, अयोध्या में जन्मी लेखिका हैं जिनकी जड़ें समाजसेवा और परंपरा से जुड़ी हैं। उनके पिता राजकुमार यादव एक सम्मानित समाजसेवी हैं, जबकि उनकी माता रेखा यादव उनकी प्रेरणा स्रोत हैं। शिक्षाशास्त्र में स्नातकोत्तर और एम.एड. की छात्रा प्रियंका शिक्षा, समाज और संस्कृति के प्रति समर्पित हैं। अयोध्या से उनका गहरा भावनात्मक जुड़ाव ही उनकी पुस्तक “Re-rising Ayodhya” का आधार बना। इस पुस्तक में वे अयोध्या की छिपी सांस्कृतिक, ऐतिहासिक और आध्यात्मिक परतों को उजागर कर पाठकों को उसकी आत्मा से जोड़ने का प्रयास करती हैं।
1. प्रेरणा और आरंभ
अयोध्या पर इतनी विस्तृत और शोधपूर्ण कृति लिखने की प्रेरणा आपको कैसे मिली? यह विचार पहली बार कब आया?
उत्तर : अयोध्या पर लिखने की प्रेरणा मुझे मेरे भीतर की उसी आवाज़ से मिली जो हर भारतीय के भीतर किसी न किसी रूप में गूँजती है। जब मैंने देखा कि अयोध्या को लेकर दुनिया में सिर्फ राजनीति, विवाद और फैसलों की बात होती है — पर उसकी आत्मा, उसकी पीड़ा, उसकी पुनर्जागृति पर कोई नहीं बोलता — तब मुझे लगा कि किसी को उस मौन शहर की आवाज़ बनना चाहिए।
“Re-rising Ayodhya” का विचार तब जन्मा जब मैंने महसूस किया कि यह केवल एक नगरी नहीं, बल्कि एक चेतना है जो बार-बार राख से उठती है। उसी पुनर्जन्म की कहानी कहनी थी।
2. अनुसंधान की प्रक्रिया
पुस्तक में पौराणिक कथाओं से लेकर आधुनिक न्यायिक फैसलों तक की झलक है। इस व्यापक शोध के लिए आपने किन-किन स्रोतों का सहारा लिया ?
उत्तर : यह पुस्तक इतिहास, पुराण, पुरातत्व, न्याय और जनभावना — इन सभी के बीच से गुजरती है। मैंने वाल्मीकि रामायण, रामचरितमानस, स्कंदपुराण जैसे ग्रंथों का अध्ययन किया, साथ ही अयोध्या के पुरातात्विक उत्खननों की रिपोर्ट्स, कोर्ट के फैसले और पुरानी अखबारों की कवरेज भी देखी।
मेरे लिए शोध सिर्फ दस्तावेज़ों तक सीमित नहीं था — मैंने अपने माता पिता से अयोध्या के बारे में कहानियां और लोककथाएं सुनी उनका मार्गदर्शन मेरे लिए बहुत ही उपयोगी साबित हुआ साथ ही मैंने अयोध्या के लोगों से बात की, वहाँ के गलियारों में चली, मंदिरों में दीप जलाए और वह सब महसूस किया जो कोई इतिहास की किताब नहीं लिख सकती। मेरे यही अनुभव इस किताब की आत्मा बने।
3. अयोध्या को पात्र बनाना
आपने प्रस्तावना में अयोध्या को स्वयं बोलने वाला जीवंत पात्र बनाया है। इस साहित्यिक प्रयोग का विचार कैसे आया और इससे कथानक पर क्या प्रभाव पड़ा ?
उत्तर : मेरे लिए अयोध्या सिर्फ एक स्थान नहीं थी — वह एक जीवंत साक्षी थी जिसने काल, संघर्ष और पुनर्जागरण सब देखा। इसलिए मैंने उसे “पात्र” बनाया, ताकि वह खुद बोले — अपने स्वरों में, अपनी पीड़ाओं में।
जब अयोध्या बोलती है, तो इतिहास निर्जीव नहीं लगता — वह सांस लेता है। इस दृष्टिकोण से कथानक में भावनात्मक गहराई आई और पाठक को शहर से आत्मिक जुड़ाव महसूस हुआ।
4. नारी पात्रों का महत्व
सीता, उर्मिला, माण्डवी जैसे स्त्री-चरित्रों को आपने विशेष स्थान दिया है। पारंपरिक रामकथा से अलग इस दृष्टिकोण का उद्देश्य क्या था ?
उत्तर : सीता, उर्मिला, माण्डवी — ये वे आवाज़ें हैं जो रामकथा के शोर में अक्सर खो जाती हैं। एक स्त्री होने के नाते मैंने इन सभी पात्रों से भावनात्मक जुड़ाव महसूस किया, मैंने उन्हें पढ़ा समझा महसूस किया और पाया कि, अयोध्या का पुनर्जागरण केवल राम का नहीं, उन स्त्रियों का भी है जिन्होंने मौन में बलिदान दिया।
मैंने यह दृष्टिकोण इसलिए अपनाया क्योंकि हर युग का पुनर्निर्माण स्त्री की शक्ति से ही होता है। “Re-rising Ayodhya” में स्त्री कोई दर्शक नहीं, बल्कि परिवर्तन की वाहक है।
5. इतिहास और आस्था का संतुलन
धार्मिक आस्था और ऐतिहासिक तथ्यों के बीच संतुलन बिठाना कितना चुनौतीपूर्ण रहा? लेखन के दौरान किन कठिनाइयों का सामना करना पड़ा ?
उत्तर : सच कहूँ तो यह मेरे लिए सबसे बड़ी चुनौती थी — क्योंकि जहाँ इतिहास तर्क मांगता है, वहीं आस्था समर्पण । इस किताब को लिखते समय मैंने महसूस किया कि सत्य केवल पुरातात्विक नहीं होता — वह भावनात्मक भी होता है। इसलिए मैंने दोनों के बीच सेतु बनाया — जहाँ तर्क भी हो और विश्वास भी। कठिनाई तब आई जब तथ्यों और भावनाओं में संघर्ष हुआ, पर मैंने हमेशा लेखिका की ईमानदारी को प्राथमिकता दी।
6. समकालीन संदर्भ
वर्तमान भारत में अयोध्या का क्या सांस्कृतिक और सामाजिक महत्व है? क्या आपको लगता है कि यह पुनर्जागरण केवल धार्मिक घटना है या उससे कहीं अधिक ?
उत्तर : आज की अयोध्या सिर्फ मंदिर निर्माण की प्रतीक नहीं, बल्कि भारत की सांस्कृतिक पुनर्स्मृति का केंद्र है। यह पुनर्जागरण धार्मिक से अधिक मानसिक और सांस्कृतिक जागरण है। यह हमें याद दिलाता है कि हमारी सभ्यता नष्ट नहीं हुई थी — बस मौन थी। अब वह फिर से बोल रही है, अपने मूल्यों, अपने गौरव और अपने करुण स्वर में।
7. लेखकीय यात्रा
यह आपका ड्रीम प्रोजेक्ट कहा गया है। लेखन के दौरान ऐसा कोई क्षण आया जब आपको लगा कि यह यात्रा व्यक्तिगत रूप से भी आपको बदल रही है?
उत्तर : हाँ, यह सचमुच मेरा ड्रीम प्रोजेक्ट था। आप ऐसा भी कह सकते हैं कि इस पावन धरती पर मेरा जन्म हुआ, शायद इस वजह से भी मेरा लगाव इस मिट्टी से कुछ ज्यादा है साथ ही बचपन से मैंने अयोध्या के बारे में इतनी कथाएं सुनी थी की मुझे इस नगरी से एक अलग सा ही प्यार महसूस होता है !
लेखन के दौरान कई बार लगा जैसे मैं इतिहास नहीं लिख रही, बल्कि उसे जी रही हूँ। कई बार कलम रुक गई — क्योंकि भावनाएँ शब्दों से भारी पड़ गईं। इस यात्रा ने मुझे सिखाया कि लेखन सिर्फ रचना नहीं, साधना है। जब मैंने अयोध्या की पीड़ा लिखी, तो कहीं न कहीं मैंने अपनी आत्मा को भी पुनर्जन्म लेते हुए महसूस किया। कई घटनाएँ ऐसी थी जो लिखते समय मैंने ऐसा महसूस किया जैसे मैं उस पल की साक्षी रही हूँ ! सच कहूँ तो उस अनुभव को मै शब्दों में बयां नहीं कर सकती जो मैंने इस पुस्तक को लिखने की यात्रा में महसूस किया ! जो भी था अद्भुत था !
8. भविष्य की योजनाएँ
क्या आप आगे भी इसी तरह भारतीय संस्कृति या ऐतिहासिक विषयों पर लेखन जारी रखने का विचार रखती हैं? यदि हाँ, तो अगला विषय क्या हो सकता है ?
उत्तर : हाँ, यह तो शुरुआत है।
मैं आगे भी भारतीय संस्कृति, सभ्यता और उन मौन नायकों पर लिखना चाहती हूँ जिनकी कहानियाँ इतिहास की परतों में दब गई हैं।
अगला विषय “भारतीय स्त्रियों की दृष्टि से इतिहास” पर आधारित होगा — जहाँ मैं उन नारी स्वरूपों की कथा कहूँगी जिन्होंने युग बदले, पर स्वयं इतिहास में गुम रहीं।
मेरा विश्वास है कि जब हम इतिहास को स्त्री की आँखों से देखते हैं, तो वह करुणा और शक्ति दोनों में पूर्ण हो जाता है। मुझे लगता है, भारत का इतिहास अधूरा है — जब तक उसमें उसकी स्त्रियाँ बोल न उठें।
9. पाठकों के लिए संदेश
आप चाहेंगी कि पाठक इस पुस्तक से सबसे महत्वपूर्ण क्या सीख लेकर जाएं?
उत्तर : मैं चाहती हूँ कि पाठक इस पुस्तक से केवल राम या अयोध्या की कहानी न लें — बल्कि अपने भीतर के ‘रामत्व’ और ‘आस्था’ को पहचानें।
सीख यही है — चाहे युग कितना भी अंधकारमय हो, सत्य और श्रद्धा अंततः पुनः उदित होती है। हर मनुष्य के भीतर एक “अयोध्या” है — जो टूटती भी है, पर फिर से उठती भी है। यही आत्मबल, यही पुनर्जागरण इस पुस्तक का सबसे बड़ा संदेश है।
“Re-rising Ayodhya” केवल अयोध्या की नहीं, हर उस आत्मा की कहानी है जो टूटकर भी फिर उठ खड़ी होती है। जो कभी हार नहीं मानती ।
10. व्यक्तिगत अनुभव
अयोध्या आपके जीवन और पहचान का अहम हिस्सा रही है। पुस्तक पूरी होने के बाद उस नगरी को देखने का आपका दृष्टिकोण किस तरह बदला है ?
उत्तर : इस पुस्तक ने मेरा दृष्टिकोण पूरी तरह बदल दिया।
पहले मैं अयोध्या को सिर्फ एक धार्मिक स्थान के रूप में देखती थी — पर अब वह मेरे लिए एक जीवंत आत्मा है। जब मैं वहाँ जाती हूँ, तो सिर्फ मंदिर नहीं देखती — बल्कि उन असंख्य भावनाओं, संघर्षों और विश्वासों को महसूस करती हूँ जो उस मिट्टी में धड़कते हैं।
अयोध्या अब मेरे लिए “स्थान” नहीं, बल्कि “संवाद” है — मेरे और मेरी जड़ों के बीच।
Book: Rerising Ayodhya
Publisher: Evincepub Publishing