राजीव ‘आचार्य’: नवम्बर माह के अन्तिम सप्ताह से 12 दिसम्बर 2023 से दुबई में चल रहे एक वैश्विक सम्मेलन की वजह से दुनिया भर की नजर उन फैसलों पर टिकी हुई है जो इस धरती का भविष्य तय करने वाले हैं। लगभग दो हफ्तों तक चलने वाली सीओपी28 के सम्मेलन में लगभग सभी देशों के राष्ट्राध्यक्ष मौजूद हैं। इस सम्मेलन का मुख्य उद्देश्य कार्बन उत्सर्जन को लेकर सभी देशों के दायित्वों को न केवल रेखांकित करना है बल्कि ‘नेट जीरो’लक्ष्य के प्रति उनकी जवाबदारी को सुनिश्चित करना भी है।
प्रश्न यह उठता है कि क्या इस तरह के सम्मेलन और उसमें लिये जाने वाले फैसले विकास के नाम पर अंधाधुंध तरीके से प्रकृति का दोहन कर रहे देशों पर लगाम कसने में सक्षम भी है?े बीबीसी की वेबसाइट पर प्रकाशित एक रिपोर्ट के अनुसार पर्यावरण के लिए काम करने वाली सामाजिक कार्यकर्ता ग्रेटा थनबर्ग इस सम्मेलन को बस ‘यूं ही’आयोजित होने वाला सम्मेलन मानती है यानि जिससे हम बड़ी उम्मीद नहीं बांध सकते। हालांकि हमें यह स्वीकार करना होगा कि इस तरह के सम्मेलनों का बार-बार आयोजित होना हमारी प्यारी पृथ्वी के स्वास्थ्य के लिए बहुत ही जरूरी है। इसके पीछे ऐसे कई कारण है जो रोजमर्रा की जिंदगी में हमें नजर भी नहीं आते। जैसे –
1. बेहिसाब पेड़ कटने और लगातार सिकुड़ते जंगलों की वजह से आक्सीजन की कमी हो रही है और कार्बनडायआक्साइड मे वृद्धि हो रही है।
2. निरंतर दोहन से जमीन के भीतर पानी का स्तर घटता जा रहा है। जहाँ पहले दस फीट बोरिंग से हमें पानी मिल जाता था वहां आज साठ फीट बोरिंग के बाद भी साफ पानी नहीं मिलता।
3. नदियां प्रदूषित हो रही हैं, परिणामस्वरूप कई जलीय जीव-जंतु समाप्त हो रहे हैं, मछलियां जहरीली हो रही हैं और थालियों के जरिये मनुष्य के शरीर मे पहुंचकर उन्हें बीमार कर रही हैं।
4. कीट नाशकों की वजह से हमारे खेत जहरीले हो चुके हैं।
5. हर साल वाहनों की बढ़ती संख्या की वजह से हवा जहरीली हो चुकी है। नेशनल लाइबे्ररी आफ मेडिसिन की एक रिपोर्ट के अनुसार आज गर्भस्थ शिशु तक प्रदूषण के प्रभाव से मुक्त नहीं है।
6. नई दुनिया में 5 जून 2019 को प्रकाशित एक रिपोर्ट के अनुसार एयर कंडीशनर, रेफ्रीजरेटर, ओवन, टीवी, लैपटाप, सोफे में इस्तेमाल होने वाला फोम, रसोई गैस, फोटो कापी मशीन, सभी स्मार्ट फोन जैसे सुख के साधनों को जलवायु परिवर्तन के लिए जिम्मेदार माना जा रहा है। ये ऐसी वस्तुएं हैं जिनके आविष्कार के बाद इलेक्ट्रिानिक जगत में क्रांति सी आ गयी थी।
और हालात बिगड़ते चले गये
ऊपर दर्ज बिन्दु महज कुछ बानगी हैं। हालात इससे भी बदतर हैं और इसकी शुरूआत हुई मानव सम्यता के विकास से। इस विकास की शुरूआत से लेकर अब तक प्रकृति के साथ हमने जो दुव्र्यवहार किये और जिसकी वजह से जलवायु परिर्वतन की समस्या दुनिया के सामने उठ खड़ी हुई है उसका लेखा जोखा कुछ इस तरह है।
बेदर्दी से जंगलों का कटनाः डेटा एग्रीगेटर आवर वल्र्ड इन डेटा के नाम से जारी एक रिपोर्ट के अनुसार 1990 से 2000 के बीच 384,000 हेक्टेयर जंगल गायब हो गये और 2015 से 2020 के बीच यह आंकड़ा बढ़कर 668,400 हो गया। वर्तमान वर्ष में इस आंकड़े में कितनी बढ़ोतरी हुई होगी अनुमान लगाया जा सकता है। इस रिपोर्ट में यह भी कहा गया है कि वन विनाश के मामले मे ब्राजील के बाद भारत का ही स्थान है।
दरअसल, आज आबादी के मामले में हम पहले स्थान पर हैं तो जंगलों के कटने के मामले में दूसरे स्थान पर होना बड़ी बात नहीं है। जितने लोग होंगे, जरूरतें उतनी ही बड़ी होंगी। रहने के लिए बसाहट चाहिये तो जंगल काटकर पहले जमीन खाली की जाएगी, उस जगह पर मकान बनाना है तो इमारत के लिए लकड़ी की भी जरूरत पड़ने पर पेड़ कटेंगे, उस बसाहट में लोग गाडियां चलाएंगे तो सड़कों के लिए पेड़ कटेंगे, उस घर में रहने वाले नेक शहरी बनने के लिए स्कूल कालेज जाएंगे, पढेंगे लिखेंगे जिसके लिए कापी और किताबें चाहिये जिसके लिए भी पेड़ कटेंगे। विडम्बना यह है कि हजारों लोग पिकनिक मानने और पार्टियां करने जंगल में जाते हैं। कई लोग जंगल में फार्म हाउस बनाते हैं, कई परियोजनाओं के दफ्तर जंगल में बनाये जाते हैं और ढेर सारा कचरा निशानी के तौर पर छोड़कर आते हैं जो बरसों बरस बचे खुचे जंगल को रोगी बनाकर रख देता है।
दरअसल इंसान को यह बात बहुत देर से समझ में आई कि वह प्रकृति से जितना ले रहा है उतना ही उसे लौटाना भी है। जब तक यह बात समझ में आई तब तक मनुष्य का लालच अपने चरम पर पहुंच चुका था। तब तक हजारों हेक्टेयर जंगल पलक झपकते ही गायब हो चुके थे और लगातार आज भी हो रहे हैं। नतीजा आज हमारे सामने है।
उत्खननः धरती के गर्भ में अथाह सम्पदा छिपी हुई थी, जैसे ही मनुष्य को इस बात की जानकारी हुई धरती खोखली होती चली गयी। जीवाश्म इंधन यानि कोयला और पेट्रोलियम की खपत दुनिया में जिस हिसाब से बढ़ी उसी हिसाब से कार्बन उत्सर्जन में भी वृद्धि हुई। जलवायु परिवर्तन में जीवाश्म इंधनों की बहुत बड़ी भूमिका मानी जाती है। प्रकृति के इस हिस्से का तो हमें स्पर्श भी नहीं करना चाहिये था क्योंकि खनन करते हुए भूमि से जो भी निकालते हैं उसे कभी वापस नहीं लौटा सकते क्योंकि खनिज लाखों करोड़ों साल में बनते हैं।
पहाड़ों का नाशः पहाड़ हमारे इको सिस्टम का जरूरी हिस्सा है। पहाड़ों के ऊपर खड़े हरे भरे पेड़ बादलों को बरसने का आमंत्रण होता है। पहाड़ अपनी तलहटी में बसे नगरों शहरों और बस्तियों के तापमान का नियंत्रण भी करते हैं। हमारी मानव सभ्यता ने पहले पेड़ों को काटकर पहाड़ों को नग्न कर दिया फिर उन्हें ध्वस्त कर दिया। अब मेघ बिना बरसे ही उस इलाके से गुजर जाते हैं। मेघों का न बरसने का अर्थ हमें फिर से सीखने की जरूरत है। पहाड़ों को खोदकर सर्पीली सड़के, पुल और रिसार्ट बनाने का खामियाजा आज भी पहाड़ों में बसने वाले लोग भुगत रहे हैं।
पालीथिन का विकराल स्वरूपः मानव सभ्यता का पाषाण युग, लौह युग, ताम्र युग आदि से वर्गीकरण किया जाता है। इस लिहाज से वर्तमान युग को प्लास्टिक युग कहना ही उचित होगा। हमारे जीवन का कोई भी हिस्सा प्लास्टिक से मुक्त नहीं है। सुबह उठने पर ब्रश करने से लेकर रात में जिस स्विच से बल्ब को आफ करते हैं के बीच, गौर करें कि दिनचर्या का कौन सा हिस्सा प्लास्टिक से अछूता रहा। हर देश में प्लास्टिक का एक पहाड़ सा खड़ा हो रहा है एवं उसके निपटान के लिए किसी के पास कोई तरीका नहीं है। प्लास्टिक अपने आप समाप्त नहीं होता। इसे हम जला नहीं सकते और न इसे भूमि में दफना सकते हैं। प्लास्टिक की थैलियों के प्रचलन से कई पशु प्लास्टिक की थैलियों में लपेटी हुई रोटियां थैली समेत गटक जाते हैं। समाचार पत्रो में आये दिन खबरें प्रकाशित होती रहती हैं कि गाय की सर्जरी के बाद उसके पेट से सिर्फ प्लास्टिक की थैलियां निकली। केन्द्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड की वर्ष 2019-20 की रिपोर्ट के अनुसार भारत मे प्रतिवर्ष लगभग 34.69 लाख टन प्लास्टिक कचरा उत्पन्न होता है। इसीलिए वर्ष 2019 में प्रधानमंत्री मोदीजी ने देश के नागरिकों से सिंगल यूज प्लास्टिक से मुक्त होने की अपील की थी।
और इस तरह बजने लगी खतरे की घंटी
यह दादी और नानी के जमाने की बात नहीं है बल्कि महज कुछ दशक पहले की बात है जब हम फरवरी-मार्च तक स्वेटर पहनते थे, मई-जून में झुलसाने वाली गर्मी का सामना करते थे और मानसून आने से पहले कई तैयारियां पहले से करके रख लेते थें। लेकिन आज हम ऐसा नहीं कर सकते क्योंकि हमें पता ही नहीं कि कब बारिश हो जाए या कब सर्दी से दांत बजने लगे या फिर कब तेज गर्मी से बीमार पड़ जाएं। कभी बाढ़ तो कभी ओले। यानि कहीं कुछ ऐसा हुआ कि मौसम और समय का तालमेल बिगड़ गया। इस तालमेल के बिगड़ने के असर से जो वैश्विक पर्यावरण की तस्वीर बनती है वह बहुत ही भयावह है।
उदाहरण के लिए –
– अत्यधिक कार्बन उत्सर्जन से पृथ्वी के तापमान में वृद्धि हुई।
– पृथ्वी के तापमान में वृद्धि से होने से हिमनद पिघलने लगे।
– हिमनद पिघलने से नदियों और समुद्र के जलस्तर में वृद्धि हुई, कई तट समुद्र की पेट में समा गये, ग्लेशियरों के माध्यम से जिन बसाहटों में जलापूर्ति होती थी वहाँ सूखे की स्थिति उत्पन्न हुई तो दूसरी ओर नदियों के जलस्तर में वृद्धि से बाढ़ जैसे हालात पैदा हो गये। एक रिपोर्ट के अनुसार 2100 तक हिमालय के 75 प्रतिशत ग्लेशियर खत्म हो जाएंगे। उस समय की विभीषिका के संबंध में हम मात्र अनुमान लगा सकते हैं।
यह छोटा सा उदाहरण मात्र गर्म होती पृथ्वी और परिणामस्वरूप पिघलने वाले ग्लेशियर के संदर्भ में है। वास्तविक तथ्य यह है कि यदि सभी देशों ने इस दिशा में समवेत प्रयास की इच्छाशक्ति नहीं दिखाई तो यह पूरी धरती ही एक दिन नष्ट हो जाएगी और जिम्मेदार होगी हमारी मानव सम्भ्यता।
पृथ्वी के तापमान में क्यों हो रही है वृद्धि
पृथ्वी के जन्म के संदर्भ में वैज्ञानिकों द्वारा सुनायी जाने वाली कहानी के अनुसार पृथ्वी की शक्ल हमेशा से ऐसा नहीं थी। शुरूआत में तो यह आग का गोला था जो धीरे-धीरे ठण्ढी हुई। जीवन के अंकुर फूटे और सभ्यताएं विकसित हुईं। इसके साथ ही पृथ्वी की उम्र भी आगे बढ़ी, सूर्य के विकिरणों से,महाद्वीपों के बहाव से, पृथ्वी की कक्षा में बदलाव से जलवायु में भी परिवर्तन होते हैं, परंतु ये सभी प्राकृतिक प्रक्रियाएँ हैं और इन पर हमारा नियंत्रण नहीं है। प्रकृति अपने मार्ग स्वयं बनाती है। जिस समस्या के निदान के लिए दुनिया भर के देशों के प्रतिनिधि दुबई में मंत्रणा कर रहे हैं, उससमस्या के मूल में है मानवजनित ग्रीन हाउस प्रभाव। दरअसल पृथ्वी कई गैसों से बनी एक परत से आच्छादित है, जिसे वैज्ञानिक ग्रीन हाउस कहते हैं, ये गैसें जितनी अधिक होंगी उतनी अधिक सूर्य की ऊर्जा का अवशोषण करेंगी। परिणामस्वरूप पृथ्वी की सतह गर्म होती चली जाएगी। दुनिया के सामने आज यही सबसे बड़ी समस्या है। सवाल यह उठता है कि इससे हमें क्या? हमने क्या किया? या हम क्या कर सकते हैं?
इन सभी प्रश्नों का उत्तर नीचे दी गयी तालिका में अंर्तनिहित है। दरअसल ग्रीन हाउस गैसें ही किसी ग्रह के जलवायु के लिए जिम्मदार होती हैं। इन गैसों में मुख्यतः कार्बनडायआसाइड, मीथेन, नाइट्रस आक्साइड, क्लोरो फ्लोरो कार्बन आदि होती हैं। मानवीय गतिविधियों से इनमें होने वाली बढ़ोतरी इस प्रकार है-
– कार्बन डायआक्साइडः लकड़ी, कोयला और तेल जलने पर, वृक्षों की कटाई से
– मीथेनः यह जुगाली करने वाले पशुओं द्वारा उत्सर्जित होती है। पृथ्वी के तपन को बढ़ाने में
इसकी भूमिका कार्बनडायआक्साइड की अपेक्षा 28 गुना अधिक है।
– नाइट्रस आक्साइडः इस गैस का उत्सर्जन खेती में प्रयुक्त होने वालीउर्वरक से होती है।
-क्लोरो फ्लोरो कार्बनः इसका इस्तेमाल प्लास्टिक बनाने में, रेफ्रीजरेंट बनाने मे किया जाता है। ओजोन
परत को क्षति पहुंचाने में इसकी बहुत बड़ी भूमिका है।
दरअसल सर्वसुविधायुक्त आरामदेह जीवन शैली के लिए हम जितनी भी वस्तुओं या साधनों का इस्तेमाल करते हैं वे सब कहीं न कहीं किसी न किसी रूप में ग्रीन गैस उत्सर्जन और जलवायु परिवर्तन के लिए जिम्मेदार हैं।
उपाय कितने कारगर
जलवायु परिवर्तन की विभिषिका को समझते हुए दुनिया भर के राष्ट्रों का एकजुट होना निःसंदेह एक जरूरी कदम है। लेकिन अगर पर्यावरण हित में आवाज उठाने वाले इससे उत्साहित नहीं हैं तो इसके पीछे भी कई वजह हैं जिसे नजरअंदाज नहीं करना चाहिये। सीओपी के पहले से लेकर 28वें आयोजन तक यदि प्रगति का आकलन करें तो हम इस बात पर आश्वस्त हो सकते हैं कि इस बीच बातचीत के लिए एक माहौल जरूर तैयार हुआ। खास तौर पर इस संदर्भ में हम पेरिस में आयोजित काप के 21वें सम्मेलन की चर्चा कर सकते हैं। वह पहला अवसर था जब सभी देश ग्रीन हाउस गैस उत्सर्जन की कटौती करने पर सहमत हुए थे। उस दौरान जलवायु परिवर्तन को रोकने, वैश्विक तापमान वृद्धि को रोकने के लिए कई लक्ष्य निर्धारित किये गये लेकिन उसके बाद से विभिन्न देशों में जिस तरह इस दिशा में काम होना चाहिये वह व्यावहारिक तौर पर नहीं देखा गया।
असल समस्या विकसित, विकासशील और पिछड़े देशों के मध्य हितों के टकराव की है और किसी भी देश के लिए यह इतना आसान भी नहीं है। गरीब देशों का यह कहना है कि यह समस्या अमीर देशों द्वारा उत्पन्न की गयी है क्योंकि सबसे ज्यादा जीवाश्म इंधनों का उपयोग उन्होंने ही किया और उसी से पैसा कमाया तो अब वह धन उन्हें गरीब देशों को देना चाहिये ताकि वे वैश्विक तापमान को नियंत्रित करने के लिए काम कर सकें।
यहाँ फिर एक सवाल उठ खड़ा होता है कि क्या विकास जरूरी नहीं है और अगर विकास का अंततः परिणाम यही है तो आगे हमें क्या करना चाहिये? दरअसल वैश्विक चिंता का विषय यही है। आर्थिक दृष्टि से एवं विकास की दृष्टि से विभिन्न पायदानों पर खड़े देश एक दूसरे से यह नहीं कह सकते कि आप अपने यहाँ विकास कार्य स्थगित कर दें। फिर भी, पेरिस सम्मेलन के बाद दुनिया भर में कार्बन उत्सर्जन को लेकर ‘नेट जीरो’ की जिस तरह पैरवी की जा रही है, वह अपने आप में बड़ी बात है। अर्थात, यदि देश में कार्बन उत्सर्जन की मात्रा तटस्थ हो जाए तो वह वातावरण केा प्रभावित नहीं करेगा और ग्लोबल वार्मिंग के खतरे को न्यून किया जा सकेगा और यह तब हो पाएगा जब स्वच्छ ऊर्जा को बढ़ावा मिले, ज्यादा से ज्यादा वृक्ष लगाएं जाएं।
दुबई में आयोजित सीओपी- 28 के सम्मेलन में प्रधानमंत्री मोदी ने बड़ा एलान करते हुए कहा कि भारत कार्बन उत्सर्जन को लेकर 2070 तक ‘नेट जीरो’ के लक्ष्य को हासिल कर लेगा। कार्बन उत्सर्जन के मामले में भारत का स्थान तीसरा है। चीन पहले स्थान पर और अमेरिका दूसरे स्थान पर है। इस घोषण को इसलिए महत्वपूर्ण माना जा रहा है क्योंकि भारत की ओर से पहली बार इस मामले में ठोस बात कही गयी है। चीन ने 2060 तक तो यूरोपीय संघ ने 2050 तक इस लक्ष्य को हासिल कर लेने का वादा किया हैं
दुनिया को प्रदूषित करने के मामले में भारत की स्थिति
जिस हिसाब से विकास और प्रगति के लिए पर्यावरण का नुकसान हुआ है, उसे देखते हुए जाहिर है कि सबसे अधिक कार्बन उत्सर्जन करने वाले प्रमुख देशों की जिम्मेदारी सबसे ज्यादा होगी क्योंकि उन देशों की वजह से अन्य देशों के नागरिक प्रदूषित पर्यावरण के परिणाम को भुगत रहे हैं। यानि करे कोई भरे कोई जैसे हालात में यदि कोई जिम्मेदारी स्वीकार करे तो वह सफलता की पहली सीढ़ी मानी जाएगी। इस नजरिये से भारत का रूख पूरी तरह जिम्मेदाराना सिद्ध होता है।
बीबीसी की एक रिपोर्ट के अनुसार साल 2019 में भारत में प्रति व्यक्ति के हिसाब से 1.9 कार्बन उत्सर्जित किये जबकि अमेरिका में प्रति व्यक्ति 15.5 टन और रूस ने 12.5 टन कार्बन उत्सर्जित किया था।
इसका अर्थ यह है कि हम भारतीय अमेरिका और रूस के लोगों की अपेक्षा काफी कम कार्बन उत्सर्जित करते है। लेकिन चूंकि हमारे यहाँ जनसंख्या अधिक है इसलिए हम शीर्ष कार्बन उत्सर्जक देशों में से एक बन जाते हैं। इसका एक अर्थ यह भी है कि हमारे यहाँ दशा उतनी भी बुरी नहीं है जितनी बाकी देशों की। प्रकृति को साथ लेकर चलना हमारे धर्म में ही नहीं हमारे संस्कार में भी रचा बसा है। हम वृक्षों की पूजा करते हैं, परंपरानुसार भोजन करते वक्त चीटिंयों के लिए भी अंश निकालते हैं। गौ को रोटी खिलाते हैं आदि।
इसी बात की ओर संकेत करते हुए हमारे देश के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी सीओपी 28 के सम्मेलन में नये फिलासफी की बात कहते हैं। एक प्रतिष्ठित समाचार पत्र में प्रकाशित खबर के अनुसर सम्मेलन में उन्होंने कहा कि ‘‘मैंने हमेशा महसूस किया है कि कार्बन क्रेडिट का दायरा बहुत सीमित है। एक तरह से यह फिलासफी व्यावसायिक तत्व से प्रभावित है। मैंने कार्बन क्रेडिट की व्यवस्था में सामाजिक उत्तरदायित्व की भावना की बड़ी कमी देखी है।’’
आखिर क्या है वह कार्बन क्रेडिट जिसकी चर्चा वैश्विक मंच से हमारे प्रधानमंत्री ने किया है।
इंडिया वाटर पोर्टल के अनुसारकार्बन क्रेडिट को आप जंगल द्वारा संजोए कार्बन की बिक्री से प्राप्त कीमत कह सकते हैं। वहीं आसान शब्दों में अकादमिक विषय पर आधारित एक वेबसाइट टेस्टबुक डाट काम के अनुसार क्योटो प्रोटोकाल ने कार्बन क्रेडिट की अवधारणा प्रस्तुत की जिसके अनुसार वातावरण में कार्बन उत्सर्जन कम करने के लिए किसी देश को क्रेडिट मिलता है। यह एक प्रमाण पत्र है जो इसके धारक को निर्धारित मात्रा में ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन की अनुमति देता है। एक कार्बन क्रेडिट एक टन कार्बन डायआक्साइड के बराबर होता है। क्योटो प्रोटोकाल एक अंर्तराष्ट्रीय समझौता है जिसे 1997 में अपनाया गया था।
सम्मेलन मेंप्रधानमंत्री इसी कार्बन क्रेडिट की बात कर रहे थे जो हम सबसे जुड़ा हुआ है। यानि अगर हम सभी अपने अपने स्तर पर प्रयत्नशील हो जाएँ तो हमारे देश में कार्बन क्रेडिट का दायरा बढ़ेगा और सुविधाओं का उपभोग करते हुए भी हम अपनी प्रकृति के गुनाहगार होने से बच सकते हैं।
हम क्या कर सकते हैं
– प्लास्टिक के उपयोग को जहाँ तक हो सके कम कर सकते हैं।
– अपने खेतों में कीट नाशकों का उपयोग बंद करते हुए देसी कम्पोस्ट की सहायता से जैविक खेती कर सकते हैं।
– भू जल स्तर में सुधार के लिए अपने घर में वाटर हार्वेस्टिंग सिस्टम का उपयोग कर सकते है।
– बिजली के स्थान पर वायु और सूर्य जैसे स्रोतों से उत्पन्न ऊर्जा का प्रयोग कर सकते हैं।
– प्राकृतिक स्थलों पर पिकनिक मनाने के दौरान कचरा न फैलाने की शपथ ले सकते है।
– एयर कंडीशन जैसे आधुनिक स्रोतों का कम से कम उपयोग करते हुए घर को प्राकृतिक रूप से शीतल रखने का प्रयत्न कर सकते हैं।
– हर व्यक्ति प्रकृति के लिए अपनी जिम्मेदारी समझते हुए कम से कम पांच पौधे तो लगा ही सकता है।
यदि हम इस विषय पर गम्भीरतापूर्वक विचार करें तो सैकड़ों रास्ते मिल सकते हैं जिसके जरिये पर्यावरण को कम से कम नुकसान हो। आवश्यकता है इच्छा शक्ति की क्योंकि इसके अलावा अब अन्य कोई रास्ता नहीं बचा। यह हमें तय करना है कि आने वाली पीढ़ी को हम कैसी दुनिया देकर जाने वाले हैं। यह वह समय है जब समवेत रूप से हम सभी को सनातन धर्म का यह शांति पाठ करना होगा –
ओमद्यौः शान्तिरन्तरिक्षँ शान्तिः,
पृथ्वी शान्तिरापः शान्तिरोषधयः शान्तिः ।
वनस्पतयः शान्तिर्विश्वे देवाः शान्तिर्ब्रह्म शान्तिः,
सर्वँ शान्तिः, शान्तिरेव शान्तिः, सा मा शान्तिरेधि ॥
ओम् शान्तिः शान्तिः शान्तिः॥